प्रेम कविता, अज्ञात के लिए...
तू सुनता है न मेरी,
मैं नहीं करता अब वैर
दुनिया से,
जानता है न तू?
तू ही तो है जो मुझे जैसा
मैं अब हूँ वैसे देखता है,
तू जानता है मेरे अंतरतम को,
कैसी बात है, के
मैं तेरे पास तब आता हूँ,
जब और सब द्वार बंद हो
जाते हैं मेरे लिए,
क्यों मैं तेरे पास सबसे
अंत में आता हूँ?
कितने आँसू रखे हैं मेरे
दिल में, कितनी कलियाँ
खिलने को बेताब हैं,
कितने रंग सजना चाहते हैं,
मुझे पता है के तू सब खिला
देगा, पर क्यों मैं डर जाता हूँ,
जब भी तेरी हवाएँ छूकर जाती हैं?
मुझे नहीं दिखाना पड़े किसीको,
मैं क्या हूँ, बस तू जान ले,
और तू जानता है,
क्या तू ये भी जानता है,
के जब भी मैं रोया हूँ,
किसी के भी लिए,
तू ही था वो,
जिसे मैं मांग रहा था?
तू तो जानता ही है,
मैं भी अब जानता हूँ के,
मेरी माँ बनके तूने ही मुझे प्रेम
किया था,
उस माँ का चेहरा तेरा ही था,
तू ही ऐसे रूप में आया था,
जिसे मैं छूकर प्रेम कर सकूँ,
मेरा प्रेमी भी तू ही था,
जो धोखे थे,
तेरे खेल ही थे ये,
तेरी लहरें ही थीं ये,
ये छेड़ना मीठा मीठा
मेरे हृदय को उकसाना तेरा,
क्योंकि तू भी तो चाहता है,
के मैं तेरे साथ साथ चलूँ,
के तेरी प्यार की
अदाएँ सीखूँ मैं,
जब जब मैंने प्रकृति की
आँखों में देखा,
जब जब नीले आसमान
की तरफ नज़रें उठायी,
और पक्षियों को प्यार किया,
और कोई कविता लिखने की
कोशिश की,
तू ही खुश हो रहा था,
मुझे खुश देखकर,
कभी तो रोने दे ये आंसू,
इन्ही से तो बता पाउँगा
मैं के कितना तूने मुझे दिया है,
काश अब मैं तुझसे मिल जाऊँ,
तुझसे, जिस से मैं कभी दूर
हुआ ही नहीं,
पर क्या तू है?
कहीं तू हो ही न?
बस ये खेल हो, प्रेम हो,
जो हो चुका है न हो,
जो होना है हो चुका हो,
मैं ही तू हों,
और मैं भी न होऊं...
© मनन शील।